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नज़्म
तस्कीन-ए-अना
ये तो मैं ख़ुद हूँ वो अहमक़ जिस की
अपनी रुस्वाई में तस्कीन-ए-अना होती है
सुलैमान अरीब
ग़ज़ल
कैसे वो तल्ख़-तर हैं मिरे शोर-ए-इश्क़ से
क़िस्मत से अपना चाहने में भी मज़ा नहीं
मीर तस्कीन देहलवी
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ग़ज़ल
नाज़ ओ अदा ओ ग़म्ज़ा से यूँ दिल लिया मिरा
ले जाएँ जैसे मस्त को हुश्यार खींचते
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
कह दीजो हाल देख के रहम आ गया मुझे
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
नाम-ए-'तस्कीं' पे ये मज़मून-ए-तपिश ना-ज़ेबा
था तख़ल्लुस जो सज़ा-वार तो बेताब मुझे
मीर तस्कीन देहलवी
शेर
'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
क्या जाने क्या कहा था किसी ने सुना नहीं
मीर तस्कीन देहलवी
ग़ज़ल
'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
कम-बख़्त को मर कर भी तो आराम न आया