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नज़्म
पत्थरों का मुग़न्नी
मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा फिर भी तन्हा रहा
तिश्नगी-ए-मशाम उस को बाद-ए-सबा की तरह गुल-ब-गुल ले गई
वहीद अख़्तर
ग़ज़ल
ज़ब्त-ए-ग़म से लाख अपनी जान पर बन आए है
हाँ मगर ये इज़्ज़त-ए-सादात तो रह जाए है
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
तिश्नगी होगी जहाँ बे-साख़्ता नौहा-कुनाँ
उस जगह हम दास्तान-ए-कर्बला ले जाएँगे
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
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शेर
अभी आते नहीं उस रिंद को आदाब-ए-मय-ख़ाना
जो अपनी तिश्नगी को फ़ैज़-ए-साक़ी की कमी समझे
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
इक लफ़्ज़ याद था मुझे तर्क-ए-वफ़ा मगर
भूला हुआ हूँ ठोकरें खाने के बअ'द भी
अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन
नज़्म
नया निज़ाम
न वो तरीक़-ए-त’अल्लुम न होंगी दानिश-गाह
यहाँ पे दौर-ए-मजाज़-ओ-मशाम आएगा
अख़लाक़ अहमद आहन
नज़्म
नशात-ए-उमीद
एक को है तिशनगी-ए-क़ुर्ब-ए-हक़
जिस ने किया दिल से जिगर तक है शक़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
इत्र-फ़शाँ शमीम-ए-गुल बाद-ए-सबा लतीफ़-तर
ताज़ा-कुन-ए-मशाम-ए-जाँ गेसू-ए-मुश्क-बू भी है