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ग़ज़ल
दिल फ़क़्र की दौलत से मिरा इतना ग़नी है
दुनिया के ज़र-ओ-माल पे मैं तुफ़ नहीं करता
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
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नज़्म
हुस्न और मज़दूरी
फ़िक्र से झुक जाए वो गर्दन तुफ़ ऐ लैल ओ नहार
जिस में होना चाहिए फूलों का इक हल्का सा हार
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं
है तुफ़ मुझ पर तमाशा-बीन हो कर रह गया हूँ मैं
अरशद जमाल सारिम
नज़्म
हव्वा की बेटी
शिद्दत-ए-इफ़्लास से जब ज़िंदगी थी तुझ पे तंग
इश्तिहा के साथ थी जब ग़ैरत ओ इस्मत की जंग
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
मैं तो समझा था बुझावेंगे कुछ आँसू तुफ़-ए-दिल
ये तो और आग को भड़का के चले आते हैं