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शेर
ये ज़ख़्म-ए-अना काफ़ी है ऐ यूसुफ़-ए-दौराँ
इस चश्म-ए-ज़ुलेख़ा को तू ग़मनाक न करना
बहारुन्निसा बहार
ग़ज़ल
ज़ख़्म दिल का हर-नफ़स ज़ख़्म-ए-अना होता गया
हादसा-दर-हादसा-दर-हादसा होता गया
सय्यद ज़फ़र काशीपुरी
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ग़ज़ल
जिस शख़्स ने भी खाए हैं संगीन ज़ख़्म-ए-दिल
देते उसी को हैं यहाँ तस्कीन ज़ख़्म-ए-दिल
मंजु कछावा अना
ग़ज़ल
ऐ 'अना' तुम मत गिराना अपने ही किरदार को
उन को कहने दो कि ख़ुद-दारी कहाँ आ गई
नफ़ीसा सुल्ताना अंना
ग़ज़ल
ये ज़ख़्म-ए-अना काफ़ी है ऐ यूसुफ़-ए-दौराँ
अब चश्म-ए-ज़ुलेख़ा को तू नमनाक न करना
बहारुन्निसा बहार
ग़ज़ल
आह को बाद-ए-सबा दर्द को ख़ुशबू लिखना
है बजा ज़ख़्म-ए-बदन को गुल-ए-ख़ुद-रू लिखना