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ग़ज़ल
बन गई है बैअत-ए-बातिल असास-ए-वक़्अत 'रम्ज़'
अर्सा-ए-इम्काँ को ज़ेहन-ए-कर्बला देने से क्या
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
अजब शय है 'फ़ज़ा' ज़ेहन ओ नज़र की ये असीरी भी
मुसलसल देखते रहना बराबर सोचते रहना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
तिश्नगी होगी जहाँ बे-साख़्ता नौहा-कुनाँ
उस जगह हम दास्तान-ए-कर्बला ले जाएँगे
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
जिसे मिल जाए ख़ाक-ए-पाक-ए-दश्त-ए-कर्बला 'परवीं'
पलट कर भी न देखे वो कभी इक्सीर की सूरत
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
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नज़्म
किसी की सदा
यूँ फ़ज़ाओं में रवाँ है ये सदा-ए-दिल-नशीं
ज़ेहन-ए-शाइर में हो जैसे इक अछूता सा ख़याल
इब्न-ए-सफ़ी
ग़ज़ल
'शान' बे-सम्त न कर दे तुम्हें सहरा-ए-हयात
ज़ेहन में उन के नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा रहने दो
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
गुलज़ार-ए-रिवायत से ज़रा ज़ह्न को मोड़ो
जिद्दत के बयाबान में अश्जार बहुत हैं