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शेर
इब्न-ए-इंशा
शेर
यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया
बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
शेर
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
अब के होली में बनाना गुल को जोगन ऐ सबा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
ये ज़ोरा-ज़ोरी इश्क़ की थी फ़ितरत ही जिस ने बदल डाली
जलता हुआ दिल हो कर पानी आँसू बन जाना क्या जाने
आरज़ू लखनवी
शेर
गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
मैं अब जागी हूँ जब फल खो चुके हैं ज़ाइक़ा अपना