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शेर
कल जो गले मिलते थे मुझ से कल जो मुझे पहचानते थे
आज मुसाफ़िर जान के कैसे रस्ते वो अंजान हुए
फ़हीम गोरखपुरी
शेर
पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी
और ऐसे भटकने में अंजान सी लज़्ज़त थी