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शेर
था किसी गुम-कर्दा-ए-मंज़िल का नक़्श-ए-बे-सबात
जिस को मीर-ए-कारवाँ का नक़्श-ए-पा समझा था में
अब्दुल रहमान बज़्मी
शेर
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
शेर
मिरे रश्क-ए-बे-निहायत को न पूछ मेरे दिल से
तुझे तुझ से भी छुपाता अगर इख़्तियार होता
जिगर मुरादाबादी
शेर
राहत-ए-बे-ख़लिश अगर मिल भी गई तो क्या मज़ा
तल्ख़ी-ए-ग़म भी चाहिए बादा-ए-ख़ुश-गवार में
जिगर मुरादाबादी
शेर
शुबह 'नासिख़' नहीं कुछ 'मीर' की उस्तादी में
आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं