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शेर
सिर्फ़ शिकवे दिख रहे हैं ये नहीं दिखता तुझे
तुझ से शिकवे रखने वाला तेरा दीवाना भी है
विक्रम गौर वैरागी
शेर
पियाला ज़हर का लाए हो पीने क्यों नहीं देते
मिरे मरने पे रोना है तो जीने क्यों नहीं देते
ज्ञानेंद्र विक्रम
शेर
वस्ल के दो-चार लम्हे रोज़ गिन गिन देखना
रह गया था ज़िंदगी में क्या यही दिन देखना
ज्ञानेंद्र विक्रम
शेर
ख़्वाब में चूमा था तुम ने और तब से आज तक
घेर लेती हैं मुझे हर गुलसिताँ की तितलियाँ
ज्ञानेंद्र विक्रम
शेर
दिल आबाद कहाँ रह पाए उस की याद भुला देने से
कमरा वीराँ हो जाता है इक तस्वीर हटा देने से
जलील ’आली’
शेर
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से
ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बहुत ज़रख़ेज़ है साक़ी
अल्लामा इक़बाल
शेर
इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
दो रोज़ की महफ़िल है इक उम्र की तन्हाई