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शेर
जो भर भी जाएँ दिल के ज़ख़्म दिल वैसा नहीं रहता
कुछ ऐसे चाक होते हैं जो जुड़ कर भी नहीं सिलते
फ़ुज़ैल जाफ़री
शेर
मैं तो भोला-भाला 'वसीम' और वो फ़नकार सियासत का
उस के जब घटने की बारी आई मुझ को जोड़ लिया
वसीम बरेलवी
शेर
तअल्लुक़ किर्चियों की शक्ल में बिखरा तो है फिर भी
शिकस्ता आईनों को जोड़ देना चाहते हैं हम
ऐतबार साजिद
शेर
दिल तोड़ दिया तुम ने मेरा अब जोड़ चुके तुम टूटे को
वो काम निहायत आसाँ था ये काम बला का मुश्किल है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
लोग तो पारा पारा हो कर जुड़ जाते हैं लम्हे में