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शेर
लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है
कफ़-ए-पा को अगर चूमूँ तो मेहंदी रंग लाती है
आसी ग़ाज़ीपुरी
शेर
दस्त-ए-पुर-ख़ूँ को कफ़-ए-दस्त-ए-निगाराँ समझे
क़त्ल-गह थी जिसे हम महफ़िल-ए-याराँ समझे
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
मैं सफ़र में हूँ मगर सम्त-ए-सफ़र कोई नहीं
क्या मैं ख़ुद अपना ही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हूँ क्या हूँ
अख़्तर सईद ख़ान
शेर
कफ़-ए-अफ़्सोस मलने से भला अब फ़ाएदा क्या है
दिल-ए-राहत-तलब क्यूँ हम न कहते थे ये दुनिया है
अफ़ज़ाल सरस्वी
शेर
या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
गुल है कि इक आईना सर-ए-राह पड़ा है
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
गर मलूँ मैं कफ़-ए-अफ़्सोस तो हँसता है वो शोख़
हाथ में हाथ किसी शख़्स के दे कर अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
'बर्क़' उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में
ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
शेर
हाथ दोनों कफ़-ए-अफ़्सोस की सूरत लिक्खे
की जो नक़्क़ाश ने तस्वीर हमारी तय्यार