aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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वो अक्स बन के मिरी चश्म-ए-तर में रहता हैअजीब शख़्स है पानी के घर में रहता है
काम की बात मैं ने की ही नहींये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं
ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छीजिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही
तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयोदामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें
अज़ीज़-तर मुझे रखता है वो रग-ए-जाँ सेये बात सच है मिरा बाप कम नहीं माँ से
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती हैअपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
काँटों से दिल लगाओ जो ता-उम्र साथ देंफूलों का क्या जो साँस की गर्मी न सह सकें
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम तो नहीं बन सकतादर्द कुछ होते हैं ता-उम्र रुलाने वाले
बात करने का हसीं तौर-तरीक़ा सीखाहम ने उर्दू के बहाने से सलीक़ा सीखा
अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहींअश्क बह जाते हैं लेकिन आँख तर होती नहीं
है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँअब ठहरती है देखिए जा कर नज़र कहाँ
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओतुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ
तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ीतल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे
इतने आँसू तो न थे दीदा-ए-तर के आगेअब तो पानी ही भरा रहता है घर के आगे
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोयाकि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था
हम ने देखा ही था दुनिया को अभी उस के बग़ैरलीजिए बीच में फिर दीदा-ए-तर आ गए हैं
निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थेये शहर आब को तरसेगा चश्म-ए-तर के बग़ैर
एक रिश्ता जिसे मैं दे न सका कोई नामएक रिश्ता जिसे ता-उम्र निभाए रक्खा
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिएजो शीश-महल में बैठे हुए मज़दूर की बातें करते हैं
क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा हैसंग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
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