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शेर
आ के सलासिल ऐ जुनूँ क्यूँ न क़दम ले ब'अद-ए-क़ैस
उस का भी हम ने सिलसिला अज़-सर-ए-नौ बपा किया
शाह नसीर
शेर
क़फ़स में हम-सफ़ीरो कुछ तो मुझ से बात कर जाओ
भला मैं भी कभी तो रहने वाला था गुलिस्ताँ का
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
अपना घर फिर अपना घर है अपने घर की बात क्या
ग़ैर के गुलशन से सौ दर्जा भला अपना क़फ़स
हीरा लाल फ़लक देहलवी
शेर
असीर कर के हमें हुक्म दे गया सय्याद
क़फ़स हो तंग तो उन के न बाल-ओ-पर रखना
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
शेर
क़फ़स से छुट के वतन का सुराग़ भी न मिला
वो रंग-ए-लाला-ओ-गुल था कि बाग़ भी न मिला
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
क़फ़स से छुट के वतन का सुराग़ भी न मिला
वो रंग-ए-ला'ला-ओ-गुल था कि बाग़ भी न मिला