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शेर
तकल्लुफ़-बर-तरफ़ तुम कैसे मा'बूद-ए-मोहब्बत हो
कि इक दीवाना तुम से होश में लाया नहीं जाता
मख़मूर देहलवी
शेर
तअस्सुब बर-तरफ़ मस्जिद हो या हो कू-ए-बुत-ख़ाना
रह-ए-दिलदार पर जाता क़दम यूँ भी है और यूँ भी
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
शेर
हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे
तकल्लुफ़ बरतरफ़ आशिक़ हैं अपने यार के बंदे
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
शेर
ग़ज़ल लुत्फ़-ओ-असर पा कर ब-तर्ज़-ए-'मीर' रक़्साँ है
चलो बरपा करें महफ़िल चलो देखें शरर लुटता
ख़ुमार कुरैशी
शेर
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
वाँ तर्फ़-ए-दोश बर-सर-ए-दस्तार ही रहा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
क्या बुरी तरह तिरे कूचे से हम निकले हैं