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शेर
नए मंज़र के ख़्वाबों से भी डर लगता है उन को
पुराने मंज़रों से जिन की आँखें कट चुकी हैं
ख़ुशबीर सिंह शाद
शेर
हम उन के सितम को भी करम जान रहे हैं
और वो हैं कि इस पर भी बुरा मान रहे हैं
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
शेर
अब अंधेरों में जो हम ख़ौफ़-ज़दा बैठे हैं
क्या कहें ख़ुद ही चराग़ों को बुझा बैठे हैं
ख़ुशबीर सिंह शाद
शेर
जो मुँह से कहते हैं कुछ और करते हैं कुछ और
वही ज़माना में कुछ इख़्तियार रखते हैं
सरदार गंडा सिंह मशरिक़ी
शेर
हैं वही इंसाँ उठाते रंज जो होते ही कज
टेढ़ी हो कर डूबती है नाव अक्सर आब में