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शेर
तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी
सीमाब अकबराबादी
शेर
होंठों में दाब कर जो गिलौरी दी यार ने
क्या दाँत पीसे ग़ैरों ने क्या क्या चबाए होंठ
असद अली ख़ान क़लक़
शेर
समझने से रहा क़ासिर कि दानिस्ता नहीं समझा
न जाने क्यूँ हमारी प्यास को दरिया नहीं समझा
जावेद नसीमी
शेर
ख़ुर्शीद-रू हमारा जिस से मिलेगा हर सुब्ह
दानिस्ता वो नमाज़ें अपनी क़ज़ा करेगा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
विर्द-ए-इस्म-ए-ज़ात खोला चाहता है ये गिरह
मेरे दिल पर दाँत है अल्लाह की तश्दीद का