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शेर
कई बार दौर-ए-कसाद में गिरे मेहर-ओ-माह के दाम भी
मगर एक क़ीमत-ए-जिंस-ए-दिल जो खरी रही तो खरी रही
अज़ीज़ क़ैसी
शेर
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
उस के दामन पे मैं तिफ़लाना मचल जाता हूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
जो टुक दम मार सकते हम तो कुछ फ़िक्र-ए-सुख़न करते
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
शेर
जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा
इधर क्या देखता है अबरू-ए-ख़मदार के बंदे