aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "رخ"
पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरहज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूँ
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैंरुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
कभी यक-ब-यक तवज्जोह कभी दफ़अतन तग़ाफ़ुलमुझे आज़मा रहा है कोई रुख़ बदल बदल कर
जाने जो करे क़ौल न पूरा करे हर काम अधूरा यही दिन-रात तसव्वुर है कि नाहक़उसे चाहा जो न आए न बुलाए न कभी पास बिठाए न रुख़-ए-साफ़ दिखाए न कोई
रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख कर वो ये कहते हैंउधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है
दुनिया में वही शख़्स है ताज़ीम के क़ाबिलजिस शख़्स ने हालात का रुख़ मोड़ दिया हो
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह काचंदा वसूल होता है साहब दबाव से
जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जातीतो हम सियाह-नसीबों की ईद हो जाती
सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलतीचलो तुम उधर को हवा हो जिधर की
हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने मेंकिसे फ़िराक़ कहूँ और किसे विसाल कहूँ
आँखें ख़ुदा ने दी हैं तो देखेंगे हुस्न-ए-यारकब तक नक़ाब रुख़ से उठाई न जाएगी
बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिएये है मसल कि फूल नहीं पंखुड़ी सही
चेहरा खुली किताब है उनवान जो भी दोजिस रुख़ से भी पढ़ोगे मुझे जान जाओगे
ज़ाहिद ने मिरा हासिल-ए-ईमाँ नहीं देखारुख़ पर तिरी ज़ुल्फ़ों को परेशाँ नहीं देखा
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख करजलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ परवो एक बोसा हमें दे के सुर्ख़-रू है बहुत
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्तानिकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदूसुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया
अब्र में चाँद गर न देखा होरुख़ पे ज़ुल्फ़ों को डाल कर देखो
ये धूप तो हर रुख़ से परेशान करेगीक्यूँ ढूँड रहे हो किसी दीवार का साया
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