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शेर
हर इक से पूछते फिरते हैं तेरे ख़ाना-ब-दोश
अज़ाब-ए-दर-ब-दरी किस के घर में रक्खा जाए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
शेर
बस इक ख़ाना-बदोशी है कि अब तक साथ है अपने
तअ'य्युश है तसव्वुर में भी अब कोई मकाँ रखना
अब्दुल्लाह कमाल
शेर
अभी आते नहीं उस रिंद को आदाब-ए-मय-ख़ाना
जो अपनी तिश्नगी को फ़ैज़-ए-साक़ी की कमी समझे
आल-ए-अहमद सुरूर
शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
बराए-सैर मुझ सा रिंद मय-ख़ाने में गर आए
गिरे साग़र लुंढे शीशा हँसे साक़ी बहे दरिया