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शेर
वो मेरे बा'द रोते हैं अब उन से कोई क्या पूछे
कि पहले किस लिए नाराज़ थे अब मेहरबाँ क्यूँ हो
तालिब बाग़पती
शेर
राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम
देखिए क्या ढूँढते हैं और क्या पाते हैं हम
अल्ताफ़ हुसैन हाली
शेर
गर है दुनिया की तलब ज़ाहिद-ए-मक्कार से मिल
दीं है मतलूब तो इस तालिब-ए-दीदार से मिल
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
शेर
इश्क़ है दारुश्शिफ़ा और दर्द है उस का तबीब
जो नहीं इस मर्ज़ का तालिब सदा रंजूर है