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शेर
फ़र्बा-तनी की फ़िक्र में नादाँ हैं रोज़-ओ-शब
आख़िर को जानते नहीं है ये ग़िज़ा-ए-मर्ग
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
परिंदों में तो ये फ़िरक़ा-परस्ती भी नहीं देखी
कभी मंदिर पे जा बैठे कभी मस्जिद पे जा बैठे
नूर तक़ी नूर
शेर
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
शेर
किसी ने बर्छियाँ मारीं किसी ने तीर मारे हैं
ख़ुदा रक्खे इन्हें ये सब करम-फ़रमा हमारे हैं
मुबारक अज़ीमाबादी
शेर
अभी से सुब्ह-ए-गुलशन रक़्स-फ़रमा है निगाहों में
अभी पूरी नक़ाब उल्टी नहीं है शाम-ए-सहरा ने
परवेज़ शाहिदी
शेर
जीते जी हम तो ग़म-ए-फ़र्दा की धुन में मर गए
कुछ वही अच्छे हैं जो वाक़िफ़ नहीं अंजाम से
शाद अज़ीमाबादी
शेर
इस तरह ख़ुश हूँ किसी के वादा-ए-फ़र्दा पे मैं
दर-हक़ीक़त जैसे मुझ को ए'तिबार आ ही गया