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शेर
तब जानूँ मैं कि दीन-ए-मोहम्मद के हैं हरीफ़
जब रोज़-ए-हश्र हो रुख़-ए-अहल-ए-फ़रंग सुर्ख़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला
दो फ़रंगी सैर को निकले हैं मुल्क-ए-शाम से
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
बस्तियाँ ही बस्तियाँ हैं गुम्बद-ए-अफ़्लाक में
सैकड़ों फ़रसंग मजनूँ से बयाबाँ रह गया
हैदर अली आतिश
शेर
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
रखता है मह ओ ख़ुर से जो पास अपने दो बिस्कुट