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शेर
ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
कि अब मरीज़ को अच्छा था क़िबला-रू करते
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
नमाज़ियों ने तुझ अबरू को देख मस्जिद में
ब-सम्त-ए-क़िबला सुजूद-ओ-क़याम भूल गए
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
दिल सा क़िबला छोड़ के तू ने का'बे का एहराम किया
ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी
शेर
फिर के निगाह चार-सू ठहरी उसी के रू-ब-रू
उस ने तो मेरी चश्म को क़िबला-नुमा बना दिया