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शेर
माज़ी के समुंदर में अक्सर यादों के जज़ीरे मिलते हैं
फिर आओ वहीं लंगर डालें फिर आओ उन्हें आबाद करें
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
क़ुल्ज़ुम-ए-फ़िक्र में है कश्ती-ए-ईमाँ सालिम
ना-ख़ुदा हुस्न है और इश्क़ है लंगर अपना
साहिर देहल्वी
शेर
अश्क से मेरे बचे हम-साया क्यूँ-कर घर समेत
बह गई हैं कश्तियाँ इस बहर में लंगर समेत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बादबानों में भरी है इस के क्या बाद-ए-नफ़स
कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ को ताब लंगर की नहीं