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शेर
मग़रिब मुझे खींचे है तो रोके मुझे मशरिक़
धोबी का वो कुत्ता हूँ कि जो घाट न घर का
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
शेर
समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग
मग़रिब के यूँ हैं जमा ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
हसरत मोहानी
शेर
मग़रिब में उस को जंग है क्या जाने किस के साथ
सूरज चला है बाँध के तेग़ ओ सिपर कहाँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सुनो हिन्दू मुसलमानो कि फ़ैज़-ए-इश्क़ से 'हातिम'
हुआ आज़ाद क़ैद-ए-मज़हब-ओ-मशरब से अब फ़ारिग़
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
ये किस मज़हब में और मशरब में है हिन्दू मुसलमानो
ख़ुदा को छोड़ दिल में उल्फ़त-ए-दैर-ओ-हरम रखना
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
फ़र्क़ जो कुछ है वो मुतरिब में है और साज़ में है
वर्ना नग़्मा वही हर पर्दा-ए-आवाज़ में है
आनंद नारायण मुल्ला
शेर
जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब
मिरा मशरब है रिंदी रिंद को मज़हब से क्या मतलब