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शेर
वहशियों को क़ैद से छूटे हुए मुद्दत हुई
गूँजता है शोर अब तक कान में ज़ंजीर का
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
गुफ़्तुगू की तुम से आदत हो गई है वर्ना में
जानता हूँ बात करती है कहीं तस्वीर भी
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में
कि दिल में रह के अंदाज़ा नहीं है दिल की हालत का
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
देखना है किस में अच्छी शक्ल आती है नज़र
उस ने रक्खा है मिरे दल के बराबर आईना
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
फ़ना होने में सोज़-ए-शम'अ की मिन्नत-कशी कैसी
जले जो आग में अपनी उसे परवाना कहते हैं
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
वो निगाह-ए-शर्मगीं हो या किसी का इंकिसार
झुक के जो मुझ से मिला वो एक ख़ंजर हो गया
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
वो शम्अ नहीं हैं कि हों इक रात के मेहमाँ
जलते हैं तो बुझते नहीं हम वक़्त-ए-सहर भी
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
तम्हीद थी जुनूँ की गरेबाँ हुआ जो चाक
यानी ये ख़ैर-मक़्दम-ए-फ़स्ल-ए-बहार था
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
गुल है कि इक आईना सर-ए-राह पड़ा है
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
सुनता हूँ कि ख़िर्मन से है बिजली को बहुत लाग
हाँ एक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ इधर भी
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
शेर
बगूला जिन के सर पर चत्र-ए-शाही है ज़मीं मसनद
वही अक़्लीम-ए-ग़म में आह की नौबत बजाते हैं
सिराज औरंगाबादी
शेर
बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की
गरेबाँ फट चुका कुइ दम में अब नौबत ही सीने की