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शेर
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
लोग तो पारा पारा हो कर जुड़ जाते हैं लम्हे में
साइमा इसमा
शेर
कहाँ जुरअत इन अश्कों की कि देहरी आँख की लाँघें
है पहरा ज़ब्त का ऐसा कि सहमे सहमे रहते हैं