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शेर
बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'
चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या
अहमद ज़िया
शेर
पर्बत सहरा नदियाँ जंगल हमराज़ तिरे होना चाहें
ख़ामोश परिंदे अब तो निकल दुख को सरगम करने के लिए
प्रियंवदा इल्हान
शेर
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
जिस को हो दीन ओ दिल अज़ीज़ उस की गली में जाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
जिस बादल ने सुख बरसाया जिस छाँव में प्रीत मिली
आँखें खोल के देखा तो वो सब मौसम लम्हाती थे
फ़रहत ज़ाहिद
शेर
मैं कुफ़्र ओ दीं से गुज़र कर हुआ हूँ ला-मज़हब
ख़ुदा-परस्त से मतलब न बुत-परस्त से काम