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शेर
'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक
इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है
अख़्तर होशियारपुरी
शेर
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
ख़ुदा हाफ़िज़ कहा बोसा लिया घर से निकल आए
फ़ुज़ैल जाफ़री
शेर
हमेशा तिनके ही चुनते गुज़र गई अपनी
मगर चमन में कहीं आशियाँ बना न सके
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
शेर
आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
एक छलकते साग़र में मय भी है और मय-ख़ाना भी
साग़र निज़ामी
शेर
क्या जानिए कैसी थी वो हवा चौंका न शजर पत्ता न हिला
बैठा था मैं जिस के साए में 'मंज़ूर' वही दीवार गिरी
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
शेर
जो जान छिड़कते थे वही कहते हैं मुझ से
तू हल्क़ा-ए-अहबाब में शामिल ही कहाँ था