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शेर
वाइ'ज़ो हम रिंद क्यूँ-कर काबिल-ए-जन्नत नहीं
क्या गुनहगारों को मीरास-ए-पिदर मिलती नहीं
इमदाद अली बहर
शेर
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल
नासिर काज़मी
शेर
अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
ख़ुदा के वास्ते ज़ाहिद उठा पर्दा न काबे का
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफ़िर-सनम निकले
बहादुर शाह ज़फ़र
शेर
हम हैं का'बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए
मजरूह सुल्तानपुरी
शेर
सिधारें शैख़ काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे
वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे
अकबर इलाहाबादी
शेर
दोनों तेरी जुस्तुजू में फिरते हैं दर दर तबाह
दैर हिन्दू छोड़ कर काबा मुसलमाँ छोड़ कर
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में
जल्वा-गर सब में मिरा यार है अल्लाह अल्लाह