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शेर
हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
इस के ये मअ'नी कहे इक और सुने इंसान दो
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
शेर
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में
अब के होली में बनाना गुल को जोगन ऐ सबा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
दिल्ली पे रोना आता है करता हूँ जब निगाह
मैं उस कुहन ख़राबे की तामीर की तरफ़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जो कान लगा कर सुनते हैं क्या जानें रुमूज़ मोहब्बत के
अब होंट नहीं हिलने पाते और पहरों बातें होती हैं