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शेर
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए
वो हसीन दिन भी थे किस क़दर जो तुम्हारे साथ गुज़र गए
सलाम संदेलवी
शेर
एहसान दरबंगावी
शेर
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
खटक सी है जो सीने में ग़म-ए-मंज़िल न बन जाए
अल्लामा इक़बाल
शेर
मुझे लगता है दिल खिंच कर चला आता है हाथों पर
तुझे लिक्खूँ तो मेरी उँगलियाँ ऐसी धड़कती हैं
बशीर बद्र
शेर
इश्क़ के दर्द का ख़ुद इश्क़ को एहसास नहीं
खिंच गया बादे से भी दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत