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शेर
वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में
फिर उस के बा'द गिनती उम्र की दिन रात करता है
वज़ीर आग़ा
शेर
ख़ल्क़ में हैं पर जुदा सब ख़ल्क़ से रहते हैं हम
ताल की गिनती से बाहर जिस तरह रूपक में सम
ख़्वाजा मीर दर्द
शेर
पास से देखा तो जाना किस क़दर मग़्मूम हैं
अन-गिनत चेहरे कि जिन को शादमाँ समझा था मैं
चन्द्रभान ख़याल
शेर
छुपी है अन-गिनत चिंगारियाँ लफ़्ज़ों के दामन में
ज़रा पढ़ना ग़ज़ल की ये किताब आहिस्ता आहिस्ता
प्रेम भण्डारी
शेर
तेरी ताबिश से रौशन हैं गुल भी और वीराने भी
क्या तू भी इस हँसती-गाती दुनिया का मज़दूर है चाँद?
शबनम रूमानी
शेर
वक़्त-ए-पीरी दोस्तों की बे-रुख़ी का क्या गिला
बच के चलते हैं सभी गिरती हुई दीवार से