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शेर
अब राह-ए-वफ़ा के पत्थर को हम फूल नहीं समझेंगे कभी
पहले ही क़दम पर ठेस लगी दिल टूट गया अच्छा ही हुआ
मंज़र सलीम
शेर
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी
शेर
नहीं है ख़ूब सोहबत हर किसी कम-ज़र्फ़ से लेकिन
नहीं गर मानते अज़-राह-ए-नादानी तो बेहतर है
फ़ख़रुद्दीन ख़ाँ माहिर
शेर
तुम आओ मर्ग-ए-शादी है न आओ मर्ग-ए-नाकामी
नज़र में अब रह-ए-मुल्क-ए-अदम यूँ भी है और यूँ भी
साइल देहलवी
शेर
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
नहीं हिलता ये अजब दर रह-ए-दीं पत्थर है