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शेर
मदार-ए-ज़िंदगी ठहरा नफ़स की आमद-ओ-शुद पर
हवा के ज़ोर से रौशन चराग़-ए-बज़्म-ए-हस्ती है
जलील मानिकपूरी
शेर
आमद-ओ-शुद कूचे में हम उस के क्यूँ न करें मानिंद-ए-नफ़स
ज़िंदगी अपनी जानते हैं इस वास्ते आते जाते हैं
शाह नसीर
शेर
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
ग़म-ए-दीं भी अगर समझो तो इक धंदा है दुनिया का