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शेर
शब कितनी बोझल बोझल है हम तन्हा तन्हा बैठे हैं
ऐसे में तुम्हारी याद आई जिस तरह कोई इल्हाम आए
नईम सिद्दीक़ी
शेर
लफ़्ज़ को इल्हाम मअ'नी को शरर समझा था मैं
दर-हक़ीक़त ऐब था जिस को हुनर समझा था मैं
लियाक़त जाफ़री
शेर
मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
लिख दिया करता हूँ जो दिल पे गुज़रती जाए
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
शेर
ख़्वाब उतरे हैं मिरे ज़ेहन पे जैसे इल्हाम
कौन इन ख़्वाबों से ता'बीर की क़ीमत माँगे