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शेर
शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है
ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
शेर
लोग कहते हैं कि फ़न्न-ए-शाइरी मनहूस है
शेर कहते कहते मैं डिप्टी कलेक्टर हो गया
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
शेर
यही आदत तो है 'सादी' सुकून-ए-क़ल्ब का बाइस
मैं नफ़रत भूल जाता हूँ मोहब्बत बाँट देता हूँ
सईद इक़बाल सादी
शेर
तिरी तारीफ़ हो ऐ साहिब-ए-औसाफ़ क्या मुमकिन
ज़बानों से दहानों से तकल्लुम से बयानों से
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
शेर
मेरे सुकून-ए-क़ल्ब को ले कर चले गए
और इज़्तिराब-ए-दर्द-ए-जिगर दे गए मुझे