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शेर
मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना
इस में काफ़िर कोई समझे कि मुसलमाँ मुझ को
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शेर
तू कोई ग़म है तो दिल में जगह बना अपनी
तू इक सदा है तो एहसास की कमाँ से निकल
राजेन्द्र मनचंदा बानी
शेर
मुझ में थे जितने ऐब वो मेरे क़लम ने लिख दिए
मुझ में था जितना हुस्न वो मेरे हुनर में गुम हुआ