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शेर
क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
शेर
डर ख़ुदा सीं ख़ूब नईं ये वक़्त-ए-क़त्ल-ए-आम कूँ
सुब्ह कूँ खोला न कर इस ज़ुल्फ़-ए-ख़ून-आशाम कूँ
आबरू शाह मुबारक
शेर
इसी ख़ातिर तो क़त्ल-ए-आशिक़ाँ से मनअ' करते थे
अकेले फिर रहे हो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ हो कर
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
शेर
खुल गया अब ये कि वस्ल उस का ख़याल-ए-ख़ाम है
आज उम्मीदों का दिल ही दिल में क़त्ल-ए-आम है
मिर्ज़ा अली लुत्फ़
शेर
अभी है हुस्न में हुस्न-ए-नज़र की कार-फ़रमाई
अभी से क्या बताएँ हम कि वो कैसा निकलता है
आफ़ताब हुसैन
शेर
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
शेर
क्या आई थीं हूरें तिरे घर रात को मेहमाँ
कल ख़्वाब में उजड़ा हुआ फ़िरदौस-ए-बरीं था