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शेर
चश्म-ए-बातिन में से जब ज़ाहिर का पर्दा उठ गया
जो मुसलमाँ था वही हिन्दू नज़र आया मुझे
मीर कल्लू अर्श
शेर
रुश्द-ए-बातिन की तलब है तो कर ऐ शैख़ वो काम
पीर-ए-मय-ख़ाना जो ज़ाहिर में कुछ इरशाद करे
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
शेर
क़ुव्वत-ए-फ़िक्र भी दी ऐसे कि इक हद में रहो
यानी बे-कार समझदार बनाए गए हम
सय्यद ज़ामिन अब्बास काज़मी
शेर
उल्फ़त-ए-सय्याद से मजबूर हूँ ऐ हम-नफ़स
वर्ना अब भी बाज़ुओं में क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ है
सब्र कलकत्तवी
शेर
तलाश-ए-सूरत-ए-तस्कीं न कर औहाम-हस्ती में
दिल-ए-महज़ूँ बहल सकता नहीं इस नक़्श-ए-बातिल से
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
शेर
अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
आँख के लड़ने से पहले जी लड़ा बैठे हैं हम
हातिम अली मेहर
शेर
साफ़ क्या हो सोहबत-ए-ज़ाहिर से बातिन का ग़ुबार
मुँह नज़र आता नहीं आईना-ए-तस्वीर में