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शेर
चलते चलते कुछ थम जाना फिर बोझल क़दमों से चलना
ये कैसी कसक सी बाक़ी है जब पाँव में वो काँटा भी नहीं
फ़हमीदा रियाज़
शेर
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
शेर
सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह निकाली नहर
एक ज़रा से क़िस्से को अब देते क्यूँ हो तूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
शेर
इश्क़ का काँटा हमारे दिल में ये कह कर चुभा
अब निकलवाओ तो तुम उन से निकलवाना मुझे