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शेर
कुंज-ए-क़फ़स ही जिस का मुक़द्दर हुआ 'जमील'
उस की नज़र में दौर-ए-ख़िज़ाँ क्या बहार क्या
जमील अज़ीमाबादी
शेर
हमें कुंज-ए-क़फ़स में छोड़ कर सय्याद जाता है
ख़ुदा जाने कि हम से ख़ुश है या नाशाद जाता है
लक्ष्मी नारायण शफ़ीक़
शेर
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
यक-ब-यक मौसम-ए-परवाज़ में मर जाते हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सब हम-सफ़ीर छोड़ के तन्हा चले गए
कुंज-ए-क़फ़स में मुझ को गिरफ़्तार देख कर
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
सय्याद नाला सन के जो रोया तो लुत्फ़ किया
कुंज-ए-क़फ़स में बाग़ से उड़ उड़ के आए गिल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
सुब्ह होती है तो कुंज-ए-ख़ुश-गुमानी में कहीं
फेंक दी जाती है शब भर की सियाही बाँध कर
ख़ावर जीलानी
शेर
आश्ना कोई नज़र आता नहीं याँ ऐ 'हवस'
किस को मैं अपना अनीस-ए-कुंज-ए-तन्हाई करूँ
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
शेर
हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक
ऐश जितने हैं इसी कुंज-ए-कम-आसार में हैं
अरशद अब्दुल हमीद
शेर
मुद्दतें क़ैद में गुज़रीं मगर अब तक सय्याद
हम असीरान-ए-क़फ़स ताज़ा गिरफ़्तार से हैं