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शेर
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
शेर
दिल-ए-ग़म-गीं की कुछ महवीय्यतें ऐसी भी होती हैं
कि तेरी याद का आना भी ऐसे में खटकता है
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
सौगंद में खाता नहीं वल्लाह किसी की
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
पत्ते नहीं चमन में खड़कते तिरे बग़ैर
करती है इस लिबास में हर-दम फ़ुग़ाँ बसंत