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शेर
किसी महबूब-ए-गंदुम-गूँ की उल्फ़त में गुज़रते हैं
दम अपना जिस्म से या ख़ुल्द से आदम निकलता है
ज़ेबा
शेर
ज़ाहिदा किस हुस्न-ए-गंदुम-गूँ पे है तेरी निगाह
आज तू मेरी नज़र में गूना-ए-आदम लगा
हसरत अज़ीमाबादी
शेर
न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
कि हम परिंदे मक़ामात-ए-गुम-शुदा के हैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
शेर
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
कि घर में फिरते हैं हम अपनी जुस्तुजू करते
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
ये ग़ज़ल ये रेख़्ता ये शेर-ख़्वानी फिर कहाँ
नज़ीर अकबराबादी
शेर
था किसी गुम-कर्दा-ए-मंज़िल का नक़्श-ए-बे-सबात
जिस को मीर-ए-कारवाँ का नक़्श-ए-पा समझा था में
अब्दुल रहमान बज़्मी
शेर
डर ख़ुदा सीं ख़ूब नईं ये वक़्त-ए-क़त्ल-ए-आम कूँ
सुब्ह कूँ खोला न कर इस ज़ुल्फ़-ए-ख़ून-आशाम कूँ
आबरू शाह मुबारक
शेर
हर शख़्स को फ़रेब-ए-नज़र ने किया शिकार
हर शख़्स गुम है गुम्बद-ए-जाँ के हिसार में
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
शेर
किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
तिरे तकिए के नीचे भी हमारे ख़्वाब रक्खे हैं