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शेर
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
रुबअ मस्कों में कुछ आबादी है कुछ वीराना है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
फिर भला दोनों में आख़िर ख़ुद-कशीदा कौन था
अशअर नजमी
शेर
जिस्म-ए-ख़ाकी को बनाया लाग़री ने ऐन-रूह
ग़र्क़-ए-आब-ए-बहर कट कट कर ये साहिल हो गया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
कह रहा है शोर-ए-दरिया से समुंदर का सुकूत
जिस का जितना ज़र्फ़ है उतना ही वो ख़ामोश है
नातिक़ लखनवी
शेर
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले
तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले