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शेर
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
शेर
एक दिल पत्थर बने और एक दिल बन जाए मोम
आख़िर इतना फ़र्क़ क्यूँ तक़्सीम-ए-आब-ओ-गिल में है
आरज़ू लखनवी
शेर
मय-कदे को जा के देख आऊँ ये हसरत दिल में है
ज़ाहिद उस मिट्टी की उल्फ़त मेरी आब-ओ-गिल में है
हबीब मूसवी
शेर
जितने हैं कुश्तगान-ए-इश्क़ उन के अज़ल से हैं मिले
अश्क से अश्क नम से नम ख़ून से ख़ून गिल से गिल
नज़ीर अकबराबादी
शेर
किसे मिलती नजात 'आज़ाद' हस्ती के मसाइल से
कि हर कोई मुक़य्यद आब ओ गिल के सिलसिलों का था
आज़ाद गुलाटी
शेर
सय्याद नाला सन के जो रोया तो लुत्फ़ किया
कुंज-ए-क़फ़स में बाग़ से उड़ उड़ के आए गिल