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शेर
उस संग-दिल के हिज्र में चश्मों को अपने आह
मानिंद-ए-आबशार किया हम ने क्या किया
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
शेर
ख़ुद मिरे आँसू चमक रखते हैं गौहर की तरह
मेरी चश्म-ए-आरज़ू में माह-ओ-अख़तर कुछ नहीं
महफूजुर्रहमान आदिल
शेर
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
वाँ हमें सर से गुज़र जाने का आहंग है आज
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
अब दर्द में वो कैफ़ियत-ए-दर्द नहीं है
आया हूँ जो उस बज़्म-ए-गुल-अफ़्शाँ से गुज़र के