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शेर
अगर बख़्शे ज़हे क़िस्मत न बख़्शे तो शिकायत क्या
सर-ए-तस्लीम ख़म है जो मिज़ाज-ए-यार में आए
नवाब अली असग़र
शेर
गर ज़माने की अदावत है यही मुझ से तो मैं
अभी रो रो के जहाज़ उस का डुबो देता हूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
जुरअत-अफ़ज़ा-ए-सवाल ऐ ज़हे अंदाज़-ए-जवाब
आती जाती है अब इस बुत की नहीं हाँ के क़रीब
नातिक़ गुलावठी
शेर
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
ले दौड़ें हैं आँसू वहीं आँखों की ग़राबें