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शेर
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
थी यूँ तो शाम-ए-हिज्र मगर पिछली रात को
वो दर्द उठा 'फ़िराक़' कि मैं मुस्कुरा दिया
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
रहने दे ज़िक्र-ए-ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को नदीम
उस के तो ध्यान से भी होता है दिल को उलझाओ
दत्तात्रिया कैफ़ी
शेर
मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता