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शेर
इस हिर्स-ओ-हवस के मेले में हम जिंस-ए-मोहब्बत लाए हैं
सब सस्ते माल के गाहक हैं ये महँगा सौदा कौन करे
इज्तिबा रिज़वी
शेर
कई बार दौर-ए-कसाद में गिरे मेहर-ओ-माह के दाम भी
मगर एक क़ीमत-ए-जिंस-ए-दिल जो खरी रही तो खरी रही
अज़ीज़ क़ैसी
शेर
अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
ख़ुदा को बाग़बाँ और क़ौम को हम ने शजर जाना
चकबस्त बृज नारायण
शेर
'बशीर' अब गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर की याद बाक़ी है
कहाँ तक साथ दे सकते ज़मीन-ओ-आसमाँ अपना